वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया ही अक्षय तृतीया के रूप मे मनायी जाती है । ज्योतिषाचार्य रजनीश आचार्य ने बताया कि ज्योतिष में यह मुहुर्त अबूझ मुहूर्त के रूप में माता जाता है । इसमें विवाह, गृहप्रवेश, गृहारम्भ और नवीन कार्य आरम्भ आदि सभी कार्य किये जा सकते है । जिन जातको के विवाह मुहुर्त नहीं निकल रहे है वे इस दिन विवाह कर सकते है ।
भगवान परशुराम की जन्मतिथी होने के कारण इसे चिरंजिवी तिथी भी कहा जाता है । त्रेतायुग के आरंभ होने की तिथी होने के कारण युगादि तिथी भी कहा जाता है । इस दिन श्रीबद्रीनारायण के पट खुलते है । वृद्धांवन में श्री बांके बिहारी के चरणो के दर्शन वर्ष में एक बार इसी तिथी को होते है ।
इस दिन किये गये कार्य कभी क्षय नहीं होते इसलिए इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है, ज्योतिषाचार्य रजनीश आचार्य ने बताया कि
- इस दिन जल भरा कलश, पंखा, चरण पादुका, छाता, गाय, भूमि, स्वर्णपात्र आदि का दान किया जाता है ।
- इस दिन शिव मंदिर में जल से भरा कलश और खरबूजा चढाया जाता है ।
- परंपराओं के अनुसार, इस दिन सोना खरीदा जाता है कहते हैं कि इस दिन सोना खरीदने से यह पीढ़ियों के साथ बढ़ता है।
- अक्षय तृतीया के दिन गर्मी के मौसम में उपयोग मे ंहोने वाला मिट्टी का मटका खरीदे जाने का भी विधान है । इस दिन शुभ चैघडियें में मटका खरीदकर मटके का पंचोमपचार पूजन कर इसका प्रयोग किया जाता है ।
अक्षय तृतीया का व्रत कैसे किया जाता है?
अक्षय तृतीया का व्रत महिलाएं अपने और परिवार की समृद्धि के लिए रखती हैं। इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करके भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की प्रतिमा पर अक्षत एंव पुष्प चढ़ाना चाहिए। शांत मन से उनकी श्वेत कमल के पुष्प या श्वेत गुलाब, धूप, अगरबत्ती और चंदन आदि से पूजा-अर्चना करनी चाहिए । श्री सूक्त का पाठ करना चाहिए ।
अक्षय तृतीया पर दान का विशेष महत्व बताया गया है. इस दिन इन चीजों का दान करना चाहिए – पंखा, चावल, नमक, घी, चीनी, सब्जी, फल, इमली, कपड़ा ।
ज्योतिषाचार्य रजनीश आचार्य ने बताया कि इस दिन मूंग एवं चावल की खीचडी बनाई जाती है । इस दिन पापड नहीं सेका जाता है । इस दिन भोलेनाथ जी को खरबूजा एवं जल से भरा कलश एवं विष्णु जी को भीगे चने की दाल एवं तुलसी दल चढाना चाहिए । इस दिन बंधु बांधवो के साथ बैठकर भोजन करना चाहिए और सभी से प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए क्योंकि इस दिन किये गये पुण्य कभी क्षय नहीं होते ।
अक्षय तृतीया के व्रत के पीछे भी एक कहानी प्रचलित है । जब राजा युधिष्ठिर अश्वमेघ यज्ञ कर रहे थे । तब एक नेवला वहाॅं आकर लेटने लगा । लोगो ने देखा कि नेवले का आधा शरीर सुवर्णमयी है और वैसा ही है । यह देखकर युधिष्ठिर ने राजपुरोहित से इसका कारण पूछा । तब पुरोहित जी ने बताया कि – हे राजन् । इसका कारण नेबले से ही पूछो । राजा ने नेबले से पूछा तो नेबले ने बताया कि तुम्हारा य़ज्ञ अक्षय तृतीया के दिन दिये गये गेंहू के कणों के बराबर भी नहीं है । यह सुनकर युधिष्ठर जी पूछने लगे – क्यों । तब नेबला बोला – मुगल नाम का एक ब्राम्हण खेतो से दाना बीनकर अपना पोषण किया करता था ।
एक दिन की बात है कि भगवान ने उसकी परीक्षा लेनी चाही । वे अक्षय तृतीया के दिन उसके पास आये और अन्न जल मांगा । ब्राम्हण ने अपना और अपनी स्त्री का भाग उठाकर दे दिया । देते समय कुछ दाने पृथ्वी पर गिर गये । मैं वहां लोट रहा था जिससे मेर आधी काया स्वर्ण की हो गई । तब से मैं पूरे शरीर को स्वर्णमयी करने के लिये यज्ञो में घूम रहा हूॅं परंतु अक्षय तृतीया के दाने के बराबर कोई यज्ञ फलदायक नहीं मिला ताकि मेरी सम्पेूर्ण काया स्वर्ण की हो जाये ।
यह सुनकर युधिष्ठिर लज्जित हुये और अक्षय तृतीया को उसी दिन से नियम पूर्वक व्रत करने लगे । हे अक्षय तीज माता ! जैसे तूने उस नेबले की स्वर्ण देही की, वैसी सबकी करना ।