भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास की किसी घटना को कोहिनूर हीरा कहना है तो 1991 के बजट को ऐसा ही कहना पड़ेगा. दशकों की 3.5 फीसदी विकास दर के बाद जब सरकार जागी तो सचमुच चमत्कार था.
1991 के बाद आज तक नौकरी पाने वाले सभी लोगों में भारतीय अर्थव्यवस्था के शिल्पकार डॉ. मनमोहन सिंह को धन्यवाद देना चाहिए. वह दिन था 24 जुलाई 1991. तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने उस दिन जो कहा था, उसे मैं आज भी बार-बार सुनना चाहता हूं.
विक्टर ह्यूगो के इस कथन का उल्लेख करते हुए कि समय आने पर दुनिया की कोई भी शक्ति किसी अवधारणा को नहीं रोक सकती, डॉ. मनमोहन सिंह यह भी कहते हैं कि आर्थिक शक्ति के रूप में भारत के उदय को कोई नहीं रोक सकता.भारत अब जाग चुका है और हमें जीतने से कोई नहीं रोक सकता. आज 30 साल बाद भी इन शब्दों को सुनकर और पढ़कर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
जून 1991 में भारत की अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी. खाड़ी युद्ध की पृष्ठभूमि में, बढ़ती महंगाई, विदेशी मुद्रा की कमी, सोना गिरवी रखने का समय, राजनीतिक अस्थिरता, उपरोक्त बयानों से ऐसा लग रहा था कि यह सब हवा-पानी हो रहा है. आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण यानी एलपीजी की अवधारणा इस बजट से सामने आई.
बजट में किए गए प्रावधानों ने चमत्कार ही नहीं किया बल्कि आर्थिक उदारीकरण की दिशा में कुछ और कदम भी उठाए गए जिनकी घोषणा बजट में की गई. भारत के सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में सुधारों की नींव भी रखी गई थी.इसी बजट में वित्त मंत्री ने आर्थिक सुधारों में तेजी लाते हुए अगले खतरे की चेतावनी दी थी. आज हम जो देख रहे हैं वह आर्थिक असमानता है.
अगर इस असमानता को कम करना है तो तपस्या और दक्षता का उचित संतुलन आवश्यक है. भले ही सुधार से कार्यकुशलता बढ़ेगी, लेकिन हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम उसके द्वारा बनाई गई संपत्ति के मालिक हैं, लेकिन हमें यह भावना रखनी चाहिए कि हम इसके ट्रस्टी हैं. उस धन का उपयोग उनके लिए किया जाना चाहिए जिनके पास रोजगार के अवसर नहीं हैं या जिनके पास कोई विशेषाधिकार नहीं है.यदि आप धन अर्जित कर रहे हैं, तो यह समाज का ऋण है.
आज भी ज्यादातर आर्थिक नीतियां इसी बुनियाद पर बनी हैं. आज हम जो देख रहे हैं वह आर्थिक असमानता है. अगर इस असमानता को कम करना है तो तपस्या और दक्षता का उचित संतुलन आवश्यक है. भले ही सुधार से कार्यकुशलता बढ़ेगी, लेकिन हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम उसके द्वारा बनाई गई संपत्ति के मालिक हैं, लेकिन हमें यह भावना रखनी चाहिए कि हम इसके ट्रस्टी हैं.
उस धन का उपयोग उनके लिए किया जाना चाहिए जिनके पास रोजगार के अवसर नहीं हैं या जिनके पास कोई विशेषाधिकार नहीं है. यदि आप धन अर्जित कर रहे हैं, तो यह समाज का ऋण है. आज भी ज्यादातर आर्थिक नीतियां इसी बुनियाद पर बनी हैं. आज हम जो देख रहे हैं वह आर्थिक असमानता है. अगर इस असमानता को कम करना है तो तपस्या और दक्षता का उचित संतुलन आवश्यक है.
भले ही सुधार से कार्यकुशलता बढ़ेगी, लेकिन हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम उसके द्वारा बनाई गई संपत्ति के मालिक हैं, लेकिन हमें यह भावना रखनी चाहिए कि हम इसके ट्रस्टी हैं. उस धन का उपयोग उनके लिए किया जाना चाहिए जिनके पास रोजगार के अवसर नहीं हैं या जिनके पास कोई विशेषाधिकार नहीं है.
यदि आप धन अर्जित कर रहे हैं, तो यह समाज का ऋण है. आज भी ज्यादातर आर्थिक नीतियां इसी बुनियाद पर बनी हैं. उस धन का उपयोग उनके लिए किया जाना चाहिए जिनके पास रोजगार के अवसर नहीं हैं या जिनके पास कोई विशेषाधिकार नहीं है. यदि आप धन अर्जित कर रहे हैं, तो यह समाज का ऋण है.
आज भी ज्यादातर आर्थिक नीतियां इसी बुनियाद पर बनी हैं. उस धन का उपयोग उनके लिए किया जाना चाहिए जिनके पास रोजगार के अवसर नहीं हैं या जिनके पास कोई विशेषाधिकार नहीं है. यदि आप धन अर्जित कर रहे हैं, तो यह समाज का ऋण है. आज भी ज्यादातर आर्थिक नीतियां इसी बुनियाद पर बनी हैं.
पिछले साल 1991 के आर्थिक सुधारों के 30 साल पूरे होने पर डॉ. मनमोहन सिंह ने बयान पेश किया. इसमें उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सामाजिक जरूरतों की उपेक्षा को स्वीकार किया.
कोरोना के कारण देश को गंभीर स्थिति का सामना करना पड़ा था. उन्होंने कहा कि अब जरूरत है कि हम अपने पर्यावरण को बदलें और हर भारतीय के जीवन को स्वस्थ और गरिमामय बनाने का प्रयास करें. इस महान आर्थिक मंत्र पर फिर कभी लिखूंगा.
वह भाषण, जो सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, एशना है जोर कितना बाजू ए कातिल में है, इन पंक्तियों के साथ समाप्त हुआ, भारतीय अर्थव्यवस्था में अभी भी ऐतिहासिक है.