अभिषेक बघेल, सिवनी । सिवनी का ऐतिहासिक दशहरा देश-दुनिया में प्रसिद्ध है। दूर-दूर से लोग जुटते हैं। सैकड़ों पंडाल और मंदिरों की आभा देखते बनती है। रोशनी से नहाती गलियों और सड़कों पर रातभर दर्शनार्थियों का मेला, चप्पा-चप्पा चमकता है और शहर मानो जीवंत हो उठता है। नवरात्र के आखिरी तीन दिनोंं, विशेषकर दशहरे के दिन दुर्गोत्सव का उत्साह चरम पर पहुंच जाता है। श्रद्धा, आस्था और उत्सव के चटख रंग अमिट छाप छोड़ते हैं। सिवनी की सभ्यता, संस्कृति और विरासत के कारण इसे संस्कारधानी के नाम से भी जाना जाता है। मध्य प्रदेश के सिवनी शहर में ऐसी कई बातें हैं, जो इसे एक अलग ही पहचान देती हैं। उत्सव और त्योहारों को मनाने का इस शहर का तरीका भी इसे खास पहचान देता है।
छोटा-बड़ा हर त्योहार यहां पूरे उत्साह और अनूठी भव्यता से मनाया जाता है। मानो पूरा शहर साथ मिलकर उत्सव मना रहा हो। घरों से लेकर गली-मुहल्लों और बाजारों तक, उत्सव का यह उत्साह हर ओर दिखाई देता है। पंडालों का गढ़ने का काम नवरात्र के आगमन से करीब 20-25 दिन पहले से शुरू हो जाता है। दूर-दूर से कारीगर बुलाए जाते हैं। पंडालों पर लाखों रुपये खर्च होते हैं। लेकिन इनकी चमक-धमक और शोभा श्रद्धालुओं को मोहित कर देती है। इसके अलावा नवरात्र भर मंदिरों, गली-मुहल्लों और पंडालों में भंडारों का आयोजन चलता रहता है।
जानकारों की माने तो सिवनी जिले एवं आस पास के ग्रामीण इलाको सहित अलग-अलग पंडालों में 2000 से अधिक दुर्गा प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। इनमें से बहुत से पंडालों को किसी न किसी सामाजिक संदेश की थीम पर सजाया जाता है।
दरअसल, यह मंदिरों का शहर है। अनेक प्राचीन मंदिर यहां मौजूद हैं। इनमें देवी मंदिरों की संख्या अधिक है। इसी तरह सिवनी जिले में जिले के एवं बहार से आये हुए लोगो का मन मोहने के लिए सिवनी में गरबा और डांडिया का आयोजन भी बड़े पैमाने पर होता है।
दशहरे पर शाम से लेकर भोर तक चल समारोह आयोजित होता है। पूरे शहर में भव्य तरीके से बड़े चल समारोह निकलते हैं, जिसमें दुर्गा प्रतिमाओं को क्रमवार झांकियों के रूप में रख शोभायात्रा निकाली जाती है। हर झांकी अलग-अलग थीम पर केंद्रित होती है। सुंदर साजसज्जा और बैंड की सुमधुर धुनों के बीच श्रद्धालु गाते-नाचते हुए चलते हैं।
दूर-दूर से पहुंचे लोग जुलूस देखने के लिए सड़कों के दोनों किनारों पर एकत्र हो जाते हैं। रातभर यह चहल-पहल रहती है। जगह-जगह चाय-पान और फलाहार के स्टॉल भी लगते हैं। पूरी रात उत्सव चलता है और करीब-करीब भोर होते तक लोग घरों को लौटते हैं। मूर्तियों को विसर्जन के लिए बनाए गए विशेष जलकुंडों तक ले जाना का क्रम दूसरे दिन तक चलता रहता है।