क्या आपने नया बांस गांव देखा है? नहीं..! तो शायद अट्टा गांव के बारे में तो जरूर सुना होगा.! नाम और भी हैं- छपरौली, छलैरा,बरौला, बस्सी, गढ़ी, दोस्तपुर, ममूरा, मोरना, गुलावली, अच्छे बुजुर्ग, होशियार पुर। ये नेशनल कैपिटल रीजन के वे गांव हैं, जिन्हें आप हर रोज की आपाधापी में लांघ जाते हैं। स्पेशल इकोनॉमी जोन (SEZ) नोएडा में आने वाले ये गांव अब मेट्रो की भीड़ में गुम हैं।
कभी अपनी संस्कृति, भाषा और संपन्न प्राकृतिक संपदा के लिए जाने जाने वाले ये गांव अब बाजारों से पटे पड़े हैं। 17 अप्रैल 1976 को जब नोएडा यानी ‘न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी’ की नींव पड़ी तब तक भी ये गांव खूब गुलजार हुआ करते थे। नोएडा बर्ड सेंचुरी के रूप में अब भी प्रकृति के उस कलरव की छोटी सी याद बरकरार है।
इतिहास साक्षी है कि हर बार विकास की कीमत सबसे ज्यादा प्रकृति को चुकानी पड़ी है। जब भी सड़के बनीं हैं, पेड़ों के घराने उजड़े हैं। आदमी के सपने जब भी साकार हुए उसमें प्रकृति के मूल निवासी सबसे पहले बाहर हुए। दिल्ली, नोएडा, फरीदाबार, गुड़गांव ही क्या देश और दुनिया के हर शहर के बसने की कहानी इतनी ही शोक भरी है।
बात पृथ्वी की
आज पृथ्वी दिवस है। आज से 50 वर्ष पूर्व पृथ्वी को इस शोक कथा से उबारने के उद्देश्य से विश्व पृथ्वी दिवस की परिकल्पना की गई थी। पर इन पचास पर्षों के संकल्पों के बावजूद पृथ्वी का तापमान बढ़ता ही गया। ग्लोबलवॉर्मिंग और पानी, हवा और मिट्टी का प्रदूषण आज भी लगातार बढ़ता ही जा रहा है। बल्कि इसमें प्लास्टिक वेस्ट, मेडिकल वेस्ट, इलैक्ट्रॉनिक वेस्ट जैसे नए किस्म के कचरे की बढ़ोतरी ही हुई है। जबकि मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली तरंगों ने पक्षियों के जीवन पर भी संकट खड़ा कर दिया। पूरे ब्रह्माण्ड में ज्ञात जानकारियों के आधार पर अब तक केवल हमारी पृथ्वी ही ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन संभव है।
पानी की प्रचूरता के कारण हम अपनी प्यारी पृथ्वी को नीला ग्रह भी कहते हैं। ऑक्सीजन के अलावा पानी ही वह बड़ा कारण है जिसके कारण पृथ्वी पर जीवन संभव हो सका है। पृथ्वीवासियों के पालन-पोषण के लिए पृथ्वी पर भी अकूत प्राकृतिक खजाना है। पर यह खजाना और यह जीवन सिर्फ हमारे लिए ही नहीं है, बल्कि पृथ्वी के हर छोटे-बड़े प्राणी का इस पर समान अधिकार है। और इसके संरक्षण एवं संवर्द्धन की समान जिम्मेदारी भी है।
प्यारी हैं मधुमक्खियां
मधुमक्खी जैसा नन्हा जीव भी इस अधिकार और जिम्मेदारी को समझता है। मधुमक्खियां उसी अधिकार भाव से फूलों से रस ग्रहण करती हैं और उसी जिम्मेदारी के भाव से परागण भी करती हैं। वनस्पतियों के विकास में एक तिहाई हिस्सा मधुमक्खियों के इसी परागण के कारण ही संभव हो पाता है। आज 50 वें विश्व पृथ्वी दिवस के अवसर पर गूगल ने डूडल बनाकर मधुमक्खियों के इस योगदान को याद किया है। पर हम अपने अधिकार में तो मुखर और सक्रिय रहे, किंतु जिम्मेदारियां भूल गए। अपनी ताकत, बुद्धि चातुर्य और तकनीक के बल पर हमने सभी प्राणियों को बेदखल कर पृथ्वी पर कब्जे का अभियान शुरू कर दिया।
इसके लिए हमने श्रीमद् भागवत गीता में कहे गए श्लोक का अंश भी साधिकार उठा लिया, वीर भोग्या वसुंधरा यानी शक्ति संपन्न व्यक्ति ही इस पृथ्वी पर मौजूद संसाधओं और संपदा का उपभोग कर सकता है। जबकि पृथ्वी अपनी प्रकृति में ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का संदेश देती है। यह ऋग्वेद में वर्णित एक श्लोक का अंश है, जिसका अर्थ है कि सभी सुखी हो। यानी केवल एक के सुख में प्रकृति का सुख नहीं है।
इसलिए इस बार पृथ्वी ने करवट बदली है। वह हिसाब मांग रही है, अगर आपको समझ आए। शोक का समय पाला बदल रहा है। कारण, दुआ-बद् दुआ, प्रेम और प्रार्थना की ही तरह अदृश्य है। पर परिणाम बिल्कुल प्रत्यक्ष हैं- बड़े चैनलों का झुरमुठ मानी जाने वाली फिल्मसिटी में भैंसे सैर पर निकल पड़ीं, अट्टा गांव का वे इलाका जो नोएडा सेक्टर 18 के मॉल और बाजारों ने दबोच लिया था, उन पर नील गायों के झुंड निकल आए हैं।
केरल के कोझिकोड इलाके में वह ‘मालाबार सिवेट’ नजर आई जो 1990 के बाद से ही विलुप्तप्राय प्राणी मानी जा रही थी। सिवेट की ही एक और प्रजाति है जिसे हिंदी में ‘कस्तूरी बिलाव’ कहा जाता है। इसमें मौजूद कस्तूरी के लिए शिकारी इनका शिकार करते हैं और सुगंधित उत्पादों में इस कस्तूरी का इस्तेमाल किया जाता है।
जम्मू से कटड़ा जाने वाले रास्तों पर बरसों से यह अभियान चलाया जा रहा है कि बंदरों को ब्रेड न डालें। इससे उनकी आंत चिपकने लगी हैं और वे अपने प्राकृतिक कौशल और फूड हैबिट को भूल रहे हैं। पर अब कोरोना वायरस के कारण हुए लॉकडाउन में उन्होंने अपने जंगलों की राह ली। पृथ्वी और प्रकृति राजनीतिक सीमाओं में नहीं बंधती। पोलैंड की सड़कों ने भी वही देखा जो नोएडा की सड़कें देख रहीं थीं। पोलैंड में हिरणों के झुंड सड़क पर सैर करने लगे, पेरिस में बत्तखों के झुंड और सेंटिआगो में पुमा नजर आने लगे।
ये वे जीव हैं, जिनके प्राकृतिक आवास को हमने हड़प लिया था। जल जीवों के लिए भी यह उत्सवी समय है। समुद्र तटों पर कछुओं ने बेतहाशा अंडे दिए हैं, नदियां निर्मल हो गईं हैं, मछलियां अपने अंडों से नई मछलियां बनती देख रहीं हैं। आप थोड़े से उदास जरूर हैं पर प्रकृति को अपने अन्य जीवों के पोषण का समय मिल गया है। क्या यही क्लाइमेट चेंज की शुरूआत नहीं मानी जानी चाहिए? इस समय को सिर्फ उदासियों में ही नहीं, एक नए परिवर्तन के रूप में भी याद किया जाना चाहिए। बशर्तें कि वह अस्थायी न हो।
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