कश्मीरी हिन्दुओं से अमानवीय व्यवहार तो 7-8 शताब्दियों से पहले तब शुरू हो गया था जब वहां पर इस्लाम ने कदम रखा। तलवार के दम पर धर्मांतरण और लूट का सिलसिला आजादी से पहले तक चला यह बात कुछ समझ में आती है, लेकिन आजादी के बाद भी उन पर अत्याचार जारी रहा।
सत्ताधारियों ने तुष्टिकरण की राह पर चलते हुए उन पर हुए भेदभाव और अत्याचार को लेकर अपनी आंखें और कान बन्द रखे। अपने जानमाल और इज्जत को बचाने के लिए हिन्दुओं को घाटी से पलायन करना पड़ा। मुगल बादशाहों ने धर्मांतरण न करने वालों के सर कलम किए और हिन्दुओं को आरे से चिरवाया लेकिन स्वतंत्र भारत के अभिन्न अंग घाटी में एक महिला को आरे से चीर दिया गया और सरकार की कार्रवाई करने की हिम्मत तक नहीं हुई।
‘द कश्मीर फाइल्स’ (The Kashmir Files) में मर्यादित ढंग से कश्मीरी हिन्दुओं के दु:ख, दर्द को दर्शाया गया है। सत्य तो यह है कि पीडि़तों के साथ अमानवीय व्यवहार के इतने किस्से हैं कि उनको सुनकर आत्मा काम्प जाती है।
हिन्दुओं के साथ हुए अत्याचारों का वर्णन करने में मानो हर कलम नि:शब्द हो जाती व शब्दकोश छोटे पड़ जाते हैं परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि देश में कुछ लोग आज भी इन विभत्स अत्याचारों का बचाव करते हुए दिख रहे हैं।
इन घटनाओं को एकतरफा व अतिशयोक्तिपूर्ण बताया जा रहा है परन्तु उस समय के सरकारी रिकार्ड साक्षी हैं कि फिल्म जो दिखाया गया है वह गीताज्ञान की भान्ति सत्य है।
ज्ञापन में कश्मीरी हिन्दुओं की व्यथा
‘राज्य सरकार की प्रभावहीनता घाटी में लूटपाट और मासूम हत्याएं रोकने में असफल रही है। घाटी में आजकल सरकार की बजाय, आतंकवादियों का शासन है। सत्तारूढ़ राजनैतिक दलों को अलगाववादियों के क्रोध से बचकर सिर्फ स्वयं को जस का तस बनाये रखने से मतलब है।
अनन्तनाग, सोपोर, बारामुर्रन, पुलवामा, विचारनाग, शोपियां और घाटी के दूसरे क्षेत्रों में हुई घटनाएं इस बात का संकेत हैं कि हिन्दुओं पर हमला करना कट्टरपन्थियों का पूर्व नियोजित षड्यन्त्र है। शोपियां में 15 दिसम्बर, 1989 को हिन्दू आदमियों, औरतों और बच्चों पर निर्दयतापूर्वक हमले व महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार किया गया।
महन्त केशवनाथ, टिक्का लाल टपलू, एनके गञ्जू, प्रेमनाथ भट, अजय कपूर और अन्यों की हत्या इस उद्देश्य से की गई कि हिन्दुओं में भय और आतंक पैदा हो और वे घाटी छोडऩे पर विवश हो जाएं। अब तक पुलिस द्वारा हिन्दुओं पर हमला करने वालों में से एक को भी न तो पहचाना गया न ही गिरफ्तार किया गया।
पूरी तरह से भूमिगत पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित तत्त्वों का आधुनिक हथियारों से लैस होकर सुरक्षा बलों से खुलेआम जूझना, इस बात को बिल्कुल साफ-साफ जाहिर करता है कि राज्य सरकार कार्यकुशल नहीं है और इसके ही कुछ उच्चाधिकारी इस पूरे षड्यन्त्र में शामिल हैं।’
कश्मीरी हिन्दुओं द्वारा 16 जनवरी, 1990 को गवर्नर जनरल (से.नि.) के.वी. कृष्णराव को दिया ज्ञापन
पलायन करने वाले हिन्दुओं पर ही उठे थे सवाल
‘आतंक और विघटन, हत्याओं और अपहरणों, बम विस्फोट और लूटमार की घटनाओं के कारण जिन लोगों को अपने पैतृक घर छोडक़र भागना पड़ा और उष्ण कटिबन्धीय गर्मी में किसी शरणार्थी कैम्प में करुणास्पद जीवन जीने के लिए बाध्य होना पड़ा, उन लोगों के लिए इससे ज्यादा क्रूरता और अपमान क्या हो सकता था? क्या ये मानवाधिकारों के हिमायती लोग समझदार और पढ़े-लिखे कश्मीरी हिन्दुओं को इतना बेवकूफ समझते हैं कि वे अपने घर, सम्पत्ति, नौकरी सिर्फ अफवाहों की वजह से छोड़ कर आए होंगे? या उन्हें यह लगता है कि ये कश्मीरी पण्डित जम्मू, दिल्ली या अन्य स्थानों पर पिकनिक मनाने गये हैं?’
1 मई, 1990 को जारी कश्मीरी माईग्रेन्ट फोरम की रिपोर्ट, इसमें हिन्दुओं के पलायन पर सवाल उठाने वाले सेक्युलरों को जवाब दिया गया है।
हिन्दुओं की हालत नाजी कैम्प के कैदियों जैसी
(फरवरी 1986 में आतंकी हमलों के बाद राज्यपाल जगमोहन ने अनन्तनाग जिले के गांवों और कस्बों का दौरा किया। इस सन्दर्भ उन्होंने 5 मार्च को गृहमन्त्री एस.बी.चव्हाण को पत्र लिखा। इसकी एक प्रति प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भी भेजी गई। पत्र का विषय इस प्रकार है…)।
‘चार जिलों-अनन्तनाग, श्रीनगर, बारामूला और डोडा के लगभग सभी दंगाग्रस्त इलाकों का मैं दौरा कर चुका हूं। वानपोह, लुकभवन, फतेहपुर, गौतमनाग, सलैर, अकूरा, सोपोर और डोडा की लगभग सभी धार्मिक या निजी इमारतें जिन्हें क्षति पहुंची है, उन्हें देखा है।
हिन्दुओं के घरों, दुकानों और मन्दिरों को भारी क्षति पहुंची है, लेकिन इससे कहीं ज्यादा क्षति उनकी मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति को हुई है। वे अब भयभीत कबूतरों की तरह वहां रह रहे हैं। वान्पोह या बोनीगुण्ड, अकूरा और सलैर के कुछ गांवों में उनके आतंकित चेहरों ने मुझे युद्ध के दौरान गैस चैम्बरों में भेजे जाने वाले जर्मन यहूदियों के चेहरों की तस्वीर की याद दिला दी।
मुझे देखकर उन्होंने रोना, दु:ख प्रकट करना शुरू कर दिया और तत्काल कश्मीर घाटी से बाहर भेजने की मांग की। उन्हें धन या अन्य किसी तरह की सहायता नहीं चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि उनकी सम्पत्ति, सम्मान और जीवन सुरक्षित नहीं रहा, सब उनके लिए निरर्थक है।
मैंने अपनी तरफ से उनकी आहत भावनाओं को सहलाने का भरसक प्रयास किया लेकिन अगर उनके घाव भरने हैं तो उन्हें भरने में अभी बहुत समय लगेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राज्य सरकार और जिला प्रशासन द्वारा मुझे और केंद्र सरकार को गलत रिपोर्ट भेजी गई।
उन जगहों पर जो कुछ मैंने देखा वह उससे काफी अलग था। उदाहरण के लिए बोनीगुण्ड गांव में हुए नुकसान का, जहां 29 फरवरी, 1986 को भयानक हमला हुआ था। यहां 7 घरों को बिल्कुल जला दिया गया था, 8 को आंशिक रूप से नुकसान हुआ और उन्हें लूट लिया गया, 3 मन्दिरों, एक दुकान को जला दिया गया। जिला मुख्यालय से यह गांव 3/4 किलोमीटर भी दूर नहीं है।
(‘कश्मीर समस्या और विश्लेषण’ लेखक जगमोहन, तत्कालीन राज्यपाल जम्मू-कश्मीर)।
उक्त तथ्य तो केवल चन्द उदाहरण मात्र हैं जो उक्त फिल्म को सच्चाई का प्रमाणपत्र देने को प्रयाप्त हैं। इनके अतिरिक्त भी जम्मू-कश्मीर के सरकारी रिकार्ड, अनेक लेखकों के लेख व पुस्तकें और भुक्तभोगी लोगों का जीवित होना अपने आप में बहुत बड़ा तथ्य है जिनको कांग्रेस के जनक एओ ह्यूम हो या वामपन्थियों के धर्मपिता कार्ल माक्र्स अपनी पूरी बुद्धि की ताकत लगा कर भी झुठला नहीं सकते। जहां तक मुद्दे से भटकने या भ्रम पैदा करने की बात है लिबरलों द्वारा उसका प्रयास हो रहा है जो बदले हुे सामाजिक परिवेश में सफल होने वाला नहीं है।
– राकेश सैन,32, खण्डाला फार्म कालोनी,
ग्राम एवं डाकखाना लिदड़ा, जालन्धर