भारत की आजादी के 75 वर्ष: इन 75 वर्षों में बदल गई आजादी की तस्वीर

By SHUBHAM SHARMA

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Azadi

प्रतिवर्ष कैलेंडर की घूमती तारीख की तरह 15 अगस्त का विशेष दिन हर साल की भांति एक बार फिर हमारे सामने है। यह दिन प्रत्येक भारतवासी के लिए गौरवशाली दिन है, क्योंकि इसी दिन भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति मिली थी।

स्वतंत्रता दिवस को लेकर देश के प्रत्येक नागरिक के दिलो-दिमाग में एक अलग ही जज्बा और उत्साह समाहित रहता है। इस बार स्वतंत्रता दिवस की महत्ता इसलिए भी बहुत ज्यादा है, क्योंकि इस वर्ष देश की गुलामी की जंजीरों से मुक्ति के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मनाया जा रहा है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान पर ‘हर घर तिरंगा’ अभियान भी चलाया जा रहा है।

हालांकि जब हर वर्ष देश की स्वतंत्रता के साथ-साथ राष्ट्र की आन-बान और शान के प्रतीक इसी तिरंगे के नीचे खड़े होकर बहुतेरे ऐसे जनप्रतिनिधियों को भी देश की रक्षा व प्रगति का संकल्प लेते देखते हैं, जो वर्षभर सरेआम लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाते देखे जाते हैं तो मन में यही सवाल उठता है कि आखिर ऐसी संकल्प अदायगी से देश को हासिल क्या होता है? देश को आजाद हुए पूरे 75 बरस हो चुके हैं लेकिन आजादी के इन 75 वर्षों में लोकतंत्र के पवित्र स्थल संसद और विधानसभाओं के हालात साल दर साल किस कदर बदले हैं, वह किसी से छिपा नहीं है।

सदनों में अभद्रता की सीमा पार करते जनप्रतिनिधि अक्सर गाली-गलौच, उठापटक से लेकर कुर्ता-फाड़ राजनीति तक उतर आते हैं। वर्षों की गुलामी के बाद मिली आजादी को आज हम जिस रूप में संजोकर रख पाए हैं, सभी के सामने है।

आजादी के दीवानों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस देश को आजाद कराने के लिए वे इतनी कुर्बानियां दे रहे हैं, उस राष्ट्र की ऐसी दुर्दशा होगी और आजादी की तस्वीर ऐसी हो जाएगी। हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश ने विकास के मार्ग पर तेजी से कदम बढ़ाए और विकास के अनेक सोपान तय किए हैं।

तकनीकी कौशल हासिल करते हुए देश अंतरिक्ष तक जा पहुंचा है लेकिन महिलाओं से दुर्व्यवहार की घटनाएं जिस प्रकार लगातार बढ़ रही हैं और समाज में अपराधों की तादाद भी बढ़ रही हैं, ऐसे में देश की गुलामी का दौर देख चुके कुछ बुजुर्ग तो अब कहते सुने भी जाते हैं कि गुलामी के दिन आज की इस आजादी से कहीं बेहतर थे, जहां अपराधों को लेकर मन में भय व्याप्त रहता था, किन्तु कड़े कानून बना दिए जाने के बावजूद अपराधियों के मन में अब किसी तरह का भय नहीं दिखता। ‘सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का’ कहावत हर कहीं चरितार्थ हो चली है।

देश के कोने-कोने से सामने आते अबोध बच्चियों और महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों के बढ़ते मामले आजादी की बेहद शर्मनाक तस्वीर पेश कर रहे हैं। देश में महंगाई सुरसा की तरह बढ़ रही है, मध्यम वर्ग के लिए जीवनयापन दिनों-दिन मुश्किल होता जा रहा है। आतंकवाद की घटनाएं पग पसार रही हैं, आरक्षण की आग रह-रहकर देश को जलाती रहती है।

ऐसे हालात निश्चित तौर पर देश के विकास के मार्ग में बाधक बनते हैं। हर कोई सत्ता के इर्द-गिर्द ही अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकता नजर आ रहा है। कहीं कोई सत्ता बचाने में लगा है तो कहीं कोई इसे गिराने के प्रयासों में। संसद और विधानसभाओं में हंगामेदार तस्वीरें तो अब कोई नई बात नहीं रह गई है। ऐसे बदरंग हालातों में रह-रहकर यह सवाल सिर उठाने लगता है कि आखिर कैसी है ये आजादी? आखिर आजादी का अर्थ क्या है?

इस सवाल का उत्तर तब तक नहीं दिया जा सकता, जब तक कि यह नहीं जान लिया जाए कि स्वतंत्र होना आखिर किसे कहते हैं? देश को? व्यक्ति को? समाज को? यह जानना भी बेहद जरूरी है कि क्या कुछ बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित व्यक्ति, समाज या देश को स्वतंत्र कहा जा सकता है? क्या भोजन, कपड़ा और रहने की व्यवस्था, बीमारी से बचाव, भय-आतंक, शोषण व असुरक्षा से छुटकारा, साक्षर एवं शिक्षित होने के पर्याप्त अवसर मिलना और अन्य ऐसी ही कई बातें मानव के बुनियादी अधिकार नहीं हैं? क्या शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति के संघर्ष को मानव का बुनियादी अधिकार नहीं माना जाना चाहिए? आजादी के बाद सामाजिक और आर्थिक पहलू पर देश में कमजोर तबके का स्तर सुधारने की नीयत से लागू आरक्षण के राजनीतिक रूप ने देश को आज उस चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां समूचा राष्ट्र रह-रहकर जातीय संघर्ष के बीच उलझता दिखाई देता है। स्वार्थपूर्ण राजनीति ने माहौल को इस कदर विकृत कर दिया है, जहां से निकल पाना संभव ही नहीं दिखता।

राजस्थान हो या उत्तर प्रदेश, हरियाणा हो या गुजरात अथवा महाराष्ट्र, आरक्षण के नाम पर उठते विध्वंसक आन्दोलनों की आग में से जब-तब झुलसते रहे हैं और हर कोई ऐसे विध्वंसक अवसरों का राजनीतिक लाभ लेने की कवायद में ही जुटा नजर आया है। आजादी के बाद के इन साढ़े सात दशकों में महंगाई, भ्रष्टाचार और अपराध इस कदर बढ़ गए हैं कि आम आदमी का जीना दूभर हो गया है।

भले ही भ्रष्टाचार पर नकेल कसे जाने के कितने ही ढोल क्यों न पीटे जाते रहें, किन्तु वास्तविकता यही है कि आज भी अधिकांश जगहों पर बिना लेन-देन के कार्य सम्पन्न नहीं होते। बड़े नेताओं की तो छोड़ दें, छुटभैया नेताओं की भी चांदी हो चली है।

आजादी के बाद लोकतंत्र के इस बदलते स्वरूप ने आजादी की मूल भावना को बुरी तरह तहस-नहस कर डाला है। आजादी का एक शर्मनाक पहलू यह भी है कि गिने-चुने मामलों को छोड़कर हत्या, भ्रष्टाचार, दुष्कर्म जैसे संगीन अपराधों से विभूषित जनप्रतिनिधि भी प्रायः सम्मानित जिंदगी जीते रहते हैं। देश के ये बदले हालात आजादी के कौन से स्वरूप को उजागर कर रहे हैं, विचारणीय है।

लोकतंत्र के हाशिये पर खड़ी देश की जनता के लिए इस दिशा में फिर से चिंतन-मंथन करना आवश्यक हो गया है कि वह आखिर किस तरह की आजादी की पक्षधर है? आज की आजादी, जहां तन के साथ-साथ मन भी आजाद है, सब कुछ करने के लिए, चाहे वह वतन के लिए अहितकारी ही क्यों न हो, या उस तरह की आजादी, जहां वतन के लिए अहितकारी हर कदम पर बंदिश हो।

आज की आजादी, जहां स्वहित राष्ट्रहित से सर्वोपरि होकर देशप्रेम की भावना को लीलता जा रहा है या वह आजादी, जहां राष्ट्रहित की भावना सर्वोपरि स्वरूप धारण करते हुए देश को आजाद कराने में गुमनाम लाखों शहीदों के मन में उपजे देशप्रेम का जज्बा सभी में फिर से जागृत कर सके। इस तरह के परिवेश पर सभी देशवासियों को आजादी के इस पावन पर्व पर सच्चे मन से मंथन कर सही दिशा में संकल्प लेने की भावना जागृत करनी होगी, तभी आजादी के वास्तविक स्वरूप को परिलक्षित किया जा सकेगा।

SHUBHAM SHARMA

Shubham Sharma is an Indian Journalist and Media personality. He is the Director of the Khabar Arena Media & Network Private Limited , an Indian media conglomerate, and founded Khabar Satta News Website in 2017.

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