Swami Vivekananda Punyatithi 2021: स्वामी विवेकानंद जी की पुण्यतिथि पर जानें उनके जीवन से जुड़े 5 रोचक किस्से

By: Ranjana Pandey

On: Sunday, July 4, 2021 1:26 PM

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डेस्क।स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) का मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त (Narendranath Dutta) था. इनका जन्म 12 जनवरी, 1863 को हुआ था. 4 जुलाई, 1902 को उनकी मृत्यु के पश्चात उनके सभी उपदेशों और व्याख्यानों को नौ खंडों में संकलित कर उनका प्रकाशन किया गया.

स्वामी विवेकानंद को बुद्धि और मानवता का आदर्श माना जाता है. युवा वर्ग आज भी उन्हें अपनी प्रेरणा स्त्रोत मानते हैं. उनका जीवन काल बहुत लंबा नहीं था, लेकिन इस थोड़े समय में भी उनके साथ तमाम रोचक किस्से (Interesting Facts) जुड़े हैं. आज उनकी 119 पुण्यतिथि (Swami Vivekananda Punyatithi) पर कुछ ऐसे ही प्रेरक प्रसंगों का जिक्र करेंगे


कुशाग्र बुद्धि वाले अच्छे पाठक

स्वामी विवेकानंद जिज्ञासु पाठक थे. इसी से जुड़ा एक किस्सा है, जिन दिनों वे शिकागो प्रवास में थे, वे वहां की लाइब्रेरी में अक्सर आते-जाते रहते थे. वहां से वे काफी पुस्तकें उधार लेकर आते थे और अगले दिन वापस कर देते थे. इस तरह से वे बहुत सी पुस्तकें बिना पढ़े भी वापस कर देते थे.

एक दिन लाइब्रेरियन ने स्वामी विवेकानंद से पूछा कि जिन पुस्तकों को वे पढ़ते नहीं हैं, उसे लेकर ही क्यों जाते हैं? प्रत्योत्तर में स्वामी जी ने कहा कि वह सारी पुस्तक पढ़ कर ही वापस करते हैं. लाइब्रेरियन को उन पर विश्वास नहीं हुआ. उसने कहा, अगर आप सच कह रहे हैं तो मैं आपकी परीक्षा लूंगा. स्वामी जी परीक्षा देने के लिए तुरंत तैयार हो गये. तब लाइब्रेरियन ने अपनी इच्छा से एक पुस्तक का एक अध्याय खोला और स्वामी जी से पूछा कि इस अध्याय में क्या लिखा है. स्वामी जी ने बिना पुस्तक की ओर देखे अक्षरशः पूरा अध्याय उन्हें जुबानी सुना दिया. इसके बाद लाइब्रेरियन ने कुछ और पन्ने खोले, उसमें से कुछ जानकारियां मांगी. स्वामी जी ने इस बार भी उसके सारे सवालों का वैसा ही जवाब दिया, जैसा कि पुस्तक में छपा था. लाइब्रेरियन हैरान रह गया. उसने पहली बार ऐसा कोई व्यक्ति देखा, जिसके मनो मस्तिष्क में पढ़ी हुई पुस्तकों के अंश हूबहू अंकित हो जाते हों.


निडरता

स्वामीजी बचपन में एक मित्र के घर अक्सर जाते थे और वहां जाकर चम्पक के पेड़ पर चढ़ कर उसके फूल तोड़ते थे, क्योंकि उन्हें चंपक के फूल बहुत पसंद थे. एक बार उनके दोस्त के दादाजी ने उन्हें धमकाते हुए कहा कि पेड़ पर एक ब्रह्म राक्षस रहता है, वह बच्चों को खा जाता है.

यह सुनकर नरेन्द्र पेड़ से नीचे उतर गए, लेकिन जैसे ही वो वहां से गये, नरेंद्र वापस पेड़ पर चढ़ गए. लोगों ने पूछा तो उन्होंने कहा, बुजुर्गों की हर बात पर विश्वास नहीं करना चाहिए. यदि इस पेड़ पर सचमुच में कोई राक्षस होता वह मुझे कब का खा चुका होता. विवेकानंद के जीवन में इस तरह के साहस के कई किस्से मशहूर हैं.


बुद्धिमान

एक बार स्वामी जी ट्रेन में यात्रा कर रहे थे. उन्होंने कलाई में कीमती घड़ी पहन रखी थी. ट्रेन में मौजूद कुछ लड़कियों की नजर उनकी घड़ी पर पड़ी, उनके मन में लालच आ गया. लड़कियों ने कहा कि वह घड़ी उन्हें दे दें, नहीं तो पुलिस को बुलाकर शिकायत कर देंगी कि तुम हमें छेड़ रहे थे.

विवेकानंद जी के मन में शरारत आई. उन्होंने खुद बहरा दिखाते हुए इशारे से कहा कि वे जो कुछ भी कहना चाह रही हैं, वह लिखकर दे दें. लड़कियों ने वही बात लिखकर स्वामी जी को देते हुए कहा घड़ी उतारो. तब स्वामी जी ने कहा, मुझे पुलिस को बुलवाकर उन्हें आपकी यह चिट्ठी देनी पड़ेगी. लड़कियां तुरंत वहां से उठीं और दूसरे ट्रेन के दूसरे डिब्बे में चली गईं.


एकाग्रता

एक बार अमेरिका प्रवास के दौरान स्वामी जी ने देखा कि कुछ लड़के पुल पर खड़े होकर नीचे पानी में तैरते अंडों को बंदूक से निशाना लगाकर फोड़ने की कोशिश कर रहे थे, मगर काफी कोशिशों के बावजूद उनके निशाने सही नहीं बैठ रहे थे.

तब विवेकानंद जी ने उनसे पूछा क्या मैं भी निशाना लगा सकता हूं. इस पर लड़कों ने उन्हें बंदूक पकड़ा दिया. स्वामी जी ने कुल 12 फायर अंडों पर निशाना साधा और हर निशाने पर अंडे को फोड़ने में सफल रहे. लड़के हैरान रह गये, पूछा, सर आपने पर एक कैसे इतना सधा हुआ निशाना लगाया? स्वामी जी ने कहा, आप जो भी काम करो, पूरी एकाग्रता से करो, तभी सफल होगे. आप पूरी तरह एकाग्र होकर निशाना नहीं लगा रहे थे. इसके बाद उन लड़कों ने स्वामी जी के सुझाव पर निशाना साधा और उनका हर निशाना सफल रहा.


मैं तो संन्यासी हूं

साल 1888 में आगरा और वृन्दावन के मार्ग में सफर करते हुए उन्हें एक व्यक्ति चिलम फूंकते हुए दिखा. स्वामी जी ने वहां रुक कर उससे चिलम मांगी. चिलम वाले ने कहा कि आप संन्यासी हो और मैं वाल्मीकि कुल का हूं, हमारी जूठी चिलम आपको कैसे दे दूं.

स्वामीजी उठकर जाने लगे, तभी उन्हें विचार आया कि आखिर केवल जूठा होने के कारण मैं चिलम क्यों नहीं ले सकता? उन्होंने कहा-मैंने संन्यास ग्रहण किया है. मैंने परिवार और जाति के बंधन को तोड़ दिया हैं, ये कहकर वे चिलम लेकर पीने लगे. बाद में उन्होंने बताया कि भगवान के बनाये सभी इंसान एक समान हैं, इसलिए किसी के लिए भी जाति निर्धारित द्वेष भाव मन में नही रखना चाहिए.

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