सत्ता का संग्राम: भाजपा के लिए सत्ता की सीढ़ी साबित होंगे मतुआ, राजवंशी और आदिवासी

Khabar Satta
By
Khabar Satta
खबर सत्ता डेस्क, कार्यालय संवाददाता
8 Min Read

सिलीगुड़ी। बंगाल में विधानसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान 27 मार्च को होना है। अबतक बंगाल में राजनीतिक को संस्कार, आदर्श और अपनी प्रतिष्ठा मानते थे। वर्तमान समय में अब यहां का चुनाव भी जातिगत समीकरण में बंटा हुआ महसूस हो रहा है। तृणमूल कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण के सहारे सत्ता पर काबिज होने का दम भरने का आरोप लगता रहा है। कांग्रेस और माकपा ने सांप्रदायिक पार्टी से गठबंधन करके घेरे में आ गयी है। भाजपा जो बंगाल की सत्ता में आने की कवायद तेज कर दी है। इसके लिए प्रताड़ित, उपेक्षित और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे आदिवासी, मतुआ और राजवंशी समाज को एकजुट कर सत्ता की सीढ़ी बनाने में लगी है।

बंगाल में बीजेपी के उभार के साथ ही धर्म-आधारित राष्ट्रवाद ने पार्टी सोसाइटी को चुनौती दे दी है। भाजपा ने अन्य पिछड़ी जातियों की राजनीति में अपना सुनहरा भविष्य देखा और उनको लुभाने में जुट गई। बंगाल के बदलते परिदृश्य की तुलना पूर्वी यूरोप से की जा रही है। यहा जातिगत पहचान की राजनीति की अहमियत बढ़ रही है क्योंकि भाजपा ने हिंदुत्व के छाते तले विभिन्न तबकों को लाने में कामयाबी हासिल कर ली है। उत्तर बंगाल में राजवंशी समाज और आदिवासी समाज के मतदाताओं की संख्या लगभग 50 लाख के आसपास है।

आदिवासियों को अबतक उनका अधिकार नहीं मिल पाया। उसी प्रकार राजवंशी समाज यहां का मूल निवासी होने के बाद भी राजनीतिक रुप से प्रताड़ित और अपमानित होते रहे है। इन्हें लोकसभा चुनाव के समय से अपने पाले में लेकर भाजपा ने सत्ताधारी पार्टी की नींद उड़ा दी है। जहां तक नेपाली, हिंदी, बंगाली समुदाय में पहले से भाजपा की पैठ है। यह अलग बात है कि नेपाली समुदाय में पैठ बनाने के लिए तृणमूल कांग्रेस ने विनय तमांग और विमल गुरुंग को अपने साथ मिलाया है इन दिनों चुनाव में जीत हार से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 26 मार्च से दो दिवसीय बांग्लादेश दौरा चर्चा में है।

बांग्लादेश में भी रहकर बंगाल चुनाव पर डालेंगे असर

बांग्लादेश में न रहते हुए मोदी बंगाल विधानसभा चुनाव को साधते दिखेंगे। इसका सबसे बड़ा कारण है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दूसरे दिन यानी 27 मार्च को ओराकंडी में मतुआ मंदिर जाएंगे। यह पहली बार है जब कोई भारतीय पीएम इस मंदिर का दौरा करेंगे। मतुआ समाज के लिए इससे बड़ी कोई बात नहीं है। मतुआ समुदाय पश्चिम बंगाल के चुनावों में भी अहम भूमिका में है। जिसपर बीजेपी की नजर है। उत्तर बंगाल में लगभग 51,नदिया और उत्तर और दक्षिण 24 परगना जिले को मिलाकर 70 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर मतुआ समुदाय की मजबूत पकड़ है। इन सीटों पर दक्षिण बंगाल में 27 मार्च से ही और उत्तर बंगाल में चौथे चरण से आंठवें चरण तक 10 से 26 अप्रैल को चुनाव होने हैं। मजे की बात है कि बांग्लादेश में प्रधानमंत्री के साथ बांग्लादेश में मतुआ समुदाय का चेहरा और बीजेपी के बनगाव के सासद शातनु ठाकुर भी ओराकंडी में मौजूद रहेंगे। ओराकंडी मतुआ समुदाय के गुरु हरिचंद ठाकुर और गुरुचंद ठाकुर की जन्मस्थली है।

भाजपा की सीएए के वादों के चलते उसे इस समुदाय का समर्थन भी हासिल हुआ था। ममता बनर्जी भी इस समुदाय के करीब रही हैं और वह जमीन पर अधिकार सुनिश्चित कर रही हैं। देश के विभाजन के बाद से मतुआ समुदाय के एक बड़े हिस्से को नागरिकता की समस्या से जूझना पड़ रहा है। उनको वोट का अधिकार तो मिल गया, लेकिन नागरकिता का मुद्दा बाकी है। देश के विभाजन के बाद इस समुदाय के कई लोग भारत आ गए थे। बाद में भी पूर्वी पाकिस्तान से लोग आते रहे। इस समुदाय का प्रभाव उत्तर बंगाल में सबसे ज्यादा है। लगभग तीन करोड़ लोग इस समुदाय से जुड़े हैं या उसके प्रभाव में आते हैं। ऐसे में विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए यह एक वोट बैंक रहा है। प्रधानमंत्री बांग्लादेश के स्वतंत्र होने के की 50वीं वर्षगांठ समारोह में शामिल होंगे। बंगाल असम में चुनाव के साथ भारत-बाग्लादेश के बीच कूटनीतिक रिश्तों का भी ये 50वा साल है। भाजपा बांग्लादेशी घुसपैठ को भी असम और बंगाल में प्रमुख मुद्दा बना रही है।

कौन है मतुआ समुदाय

मतुआ समाज के नेता रंजीत सरकार, रंजन मजुमदार, दिलीप बाडोई, मनोरंजन मंडल आदि से बात करने पर चला कि मतुआ समुदाय मूल रूप से पूर्वी पाकिस्तान (अब बाग्लादेश) का रहने बाले है। इस संप्रदाय की शुरुआत 1860 में अविभाजित बंगाल में हुई थी। यह लोग देश के विभाजन के बाद धाíमक शोषण से तंग आकर 1950 की शुरुआत में यहा आए थे। राज्य में उनकी तीन करोड़ 75 लाख से ज्यादा है

राजनीतिक समर्थन का इतिहास

मतुआ पहले लेफ्ट को समर्थन देता था और बाद में वह ममता बनर्जी के समर्थन में आ गया। सत्तर के दशक के आखिरी वर्षो में पश्चिम बंगाल में काग्रेस की ताकत घटी और लेफ्ट मजबूत हुआ। राजनीतिक नेताओं का कहना है लेफ्ट की ताकत बढ़ाने में मतुआ महासभा का भी बड़ा हाथ रहा। लेकिन वीणापाणि देवी की मौत के बाद अब यह समुदाय दो गुटों में बंट गया। इसलिए इस भाजपा की निगाहें इस वोट बैंक पर हैं। वर्ष 2014 में बीनापाणि देवी के बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर ने तृणमूल काग्रेस के टिकट पर बनगाव लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और संसद पहुंचे। वर्ष 2015 में कपिल कृष्ण ठाकुर के निधन के बाद उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर ने उपचुनाव में तृणमूल काग्रेस के टिकट पर यह सीट जीती थी, लेकिन बड़ो मा यानी मतुआ माता के निधन के बाद परिवार में राजनीतिक मतभेद खुल कर सतह पर आ गया। उनके छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर ने भाजपा का दामन थाम लिया। वर्ष 2019 में भाजपा ने मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शातनु ठाकुर को बनगाव से टिकट दिया और वे जीत कर सासद बन गए। समुदाय के कई लोगों को अब तक भारतीय नागरिकता नहीं मिली है। यही वजह है कि भाजपा सीएए के तहत नागरिकता देने का दाना फेंक कर उनको अपने पाले में करने का प्रयास कर रही है। कुछ इसी प्रकार का राजनीतिक इतिहास आदिवासी और राजवंशी समुदाय का रहा है।

Share This Article
Follow:
खबर सत्ता डेस्क, कार्यालय संवाददाता
Leave a Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *