दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित वी. शांताराम अपने समय के प्रतिष्ठित और लोकप्रिय निर्देशक रहे हैं। अपने मित्रों के साथ मिलकर बनाई प्रभात फिल्म कंपनी के लिए उन्होंने कई महत्वपूर्ण फिल्मों का निर्देशन किया।
1942 में प्रभात फिल्म कंपनी छोड़ कर उन्होंने अपनी स्वयं की राजकमल कला मंदिर नामक फिल्म निर्माण कंपनी बनाई और कई यादगार फिल्मों का निर्माण किया । फिल्म दो आंखें बारह हाथ बनाने का ख्याल उन्हें उस सच्ची घटना से आया जिसे उनको प्रख्यात मराठी लेखक और गीतकार जी. डी. माडगूलकर ने सुनाई थी।
यह सत्य घटना औंध राज्य में घटित हुई थी। वहां के राजा ने एक आयरिश मनोवैज्ञानिक की सहायता से बस्ती से दूर एक सुनसान जगह में एक खुली जेल बनवाई थी। यहां न बैरक थे न पहरेदार थे। उस खुली जेल में कुछ खूनी और शातिर अपराधियों को रखकर सुधारने का प्रयास किया गया था।
इस अनूठे प्रयोग के दौरान वहां की एक ग्वालिन के कारण कुछ बाधा आई थी, परंतु उस राजा ने अपना यह प्रयोग सफलतापूर्वक पूरा करके ही दम लिया। इस सत्य घटना से शांताराम भी बहुत प्रभावित हुए थे। उन्हें लगा इस पर एक अनोखी और अच्छी फिल्म बनाई जा सकती है।
लेकिन जब शांताराम जी ने माडगूलकर जी से इस बारे में पूछा तो उनका दो टूक जवाब था कि यह कहानी बहुत छोटी है। इस कहानी पर एक छोटी किताब तो लिखी जा सकती है, फिल्म नहीं बन सकती। तब भी शांताराम जी ने माडगूलकर को इस घटना पर कथा-पटकथा तैयार करने को कह दिया ।
उस मुलाकात के चार महीने बाद माडगूलकर को ‘राजकमल’ आने का अवसर मिला। जब शांतारामजी ने पटकथा के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा अन्ना! बहुत कोशिश करने पर भी मैं कैदियों की उस घटना पर पटकथा नहीं लिख सका। यह घटना बहुत ही छोटी है। लेकिन शांताराम जी ने तो मानो भीष्म प्रतिज्ञा कर रखी थी कि वे खुले जेल की इस कहानी पर जरूर फिल्म बनाएंगे।
रात को लेटते ही शांताराम फिर उसी कहानी के बारे में सोचने लगे। माडगूलकर सृजनशील लेखक हैं, फिर भी उस कहानी पर पटकथा नहीं लिख पा रहे ऐसा क्यों? तभी उन्हें लगा ऐसा शायद इसलिए हो रहा है कि कहानी को पटकथा और संवादों के साथ ही प्रभावशाली दृश्य संयोजन और निर्देशकीय प्रतिभा की भी जरूरत है।
यह समझते ही बात बन गई और पूरी फिल्म का खाका तैयार हो गया। अगले दिन उन्होंने माडगुलकर को पुणे के पते पर तार देकर तुरंत आने के लिए कह दिया। तार पाने के दो दिन बाद माडगूलकर राजकमल में हाजिर हुए। तब शांतारामजी ने उन्हें कथा की रूपरेखा , कुछ नए प्रसंग और कुछ नए पात्रों की रचना के बारे विस्तारपूर्वक सुनाकर उनकी राय मांगी तो उनके मुंह से निकल पड़ा “वाह… अन्ना… बहुर सुंदर!
अब आप इस आधार पर पटकथा संवाद लिखकर जल्द ही दे दें, शांताराम जी ने कहा।
किसी भी नई फिल्म की कथा पटकथा तैयार हो जाने के बाद ‘राजकमल’ में काम करने वाले प्रमुख कलाकारों, तकनीशियनों, सहायकों आदि को एक साथ बुलाकर स्क्रिप्ट का वाचन किया जाता था और उनकी निष्पक्ष राय मांगी जाती थी। लेकिन इस पटकथा वाचन के बाद किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। सब चुपचाप उठकर बाहर चले गए।
अन्ना… कल जिस पटकथा का वाचन किया गया, उस पर आप फिल्म नहीं बनाएं, ऐसा हम सभी चाहते हैं। यह पटकथा बहुत रूखी और नीरस है। हमारा अनुमान है कि फिल्म सुरंग की तरह यह फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर असफल होगी। ‘राजकमल’ के मैनेजर वासुनाना देसाई ,अभिनेता उल्हास सहित सभी के ऐसे विचार थे।
अपने कर्मियों का यह स्पष्ट मत सुनकर भी शांताराम बापू ने बुरा नहीं माना। इस सलाह के पीछे कोई निजी स्वार्थ नहीं है, यह बात वे जानते थे। लेकिन औध के राजा द्वारा किया गया वह अनोखा प्रयोग और उसके माध्यम से दिए गए मानवता के संदेश से वे बहुत प्रभावित थे। उन्होंने तो फिल्म बनाने का पक्का निश्चय कर लिया था। उन्हें इस फिल्म की सफलता या असफलता की चिंता नहीं थी।
कलर फिल्मों के समय में विषय की संवेदना को समझते हुए इसे ब्लैक एंड व्हाइट में बनाने का निर्णय भी काफी सहासिक था। एक जेलर, छह कैदी और ग्वालिन की जगह खिलौने बेचने वाली युवती को लेकर फिल्म बनानी शुरू की गई। खुली जेल की शूटिंग के लिए बी शांताराम ने कोल्हापुर से 10 -12 किलोमीटर दूर कस्बा बावड़ा के रास्ते में एक उजड़ा मैदान चुना था जहां खुली जेल और एक पुराने से बंगले का सेट लगाया गया था।
यहां पूरे दो महीने तक शूटिंग चली। पोस्ट प्रोडक्शन के बाद फिल्म का प्रीमियर 27 सितंबर, 1957 को बंबई के ऑपेरा हाउस में हुआ। किसी ने भी शांताराम जी को बधाई नहीं दी। समाचार पत्रों के समीक्षा कॉलमों ने भी फिल्म की प्रशंसा कम आलोचना ही अधिक की।
चलते चलते
जब फिल्म प्रदर्शित हुई तब दर्शकों की खास प्रतिक्रिया नहीं मिली लेकिन फिल्म का गंभीर विषय और सादगी ही धीरे-धीरे आकर्षण का कारण बन गई। फिल्म की लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती गई और यह फिल्म ओपेरा हाउस थियेटर में 65 सप्ताह तक चली ।
उस समय के मुंबई के पुलिस आयुक्त प्रभु सिंह ने सभी कर्मचारियों को सलाह दी थी कि कम से कम एक बार यह फिल्म अवश्य देखें। आगे चलकर फिल्म ने व्यावसायिक सफलता ही अर्जित नहीं की बल्कि अनेक महत्वपूर्ण पुरस्कार भी प्राप्त किए।
उस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म और सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म के दोनों ही राष्ट्रीय पुरस्कार इसे प्राप्त हुए। बर्लिन फिल्म महोत्सव में भी फिल्म को सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म का पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया ।
1958 में अंतरराष्ट्रीय कैथोलिक ब्यूरो ने पोप के माध्यम से मानवता का संदेश देती फिल्मों के लिए एक विशेष पुरस्कार की घोषणा करवाई थी, जिसका पहला पुरस्कार इसी फिल्म को मिला। ख्याति प्राप्त अमेरिकी निर्देशक फ्रैंक कैप्रा ने इस फिल्म को एक एपिक फिल्म की संज्ञा दी थी।
(लेखक, राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)